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पहला परिच्छेद
 


खर्च न होंगे। यह आश्वासन पाकर वे खुशी के मारे फूले न समाए!

इसी सूचना ने अज्ञात वालिका को मुँह ढाँप कर एक कोने में विठा रक्खा है। उसके हृदय में एक विचित्र शङ्का समा गई है, रोम-रोम में एक अज्ञात भय का सञ्चार हो गया है--न जाने क्या होगा? उसके मन में वे उमङ्गे नहीं हैं, जो युवतियों की आँखों में तिरछी चितवन बन कर, ओठों पर मधुर हास्य बन कर; और अङ्गों में आलस्य वन कर प्रकट होती हैं। नहीं, वहाँ अभिलाषाएँ नहीं हैं; वहाँ केवल शङ्काएँ, चिन्ताएँ और भीर कल्पनाएँ हैं। यौवन का अभी तक पूर्ण प्रकाश नहीं हुआ है!

कृष्णा कुछ-कुछ जानती है, कुछ-कुछ नहीं जानती। जानती है, बहिन को अच्छे-अच्छे गहने मिलेंगे, द्वार पर बाजे बजेंगे, मेहमान आएंगे, नाच होगा--यह जान कर प्रसन्न है; और यह भी जानती है कि वहिन सबके गले मिल कर रोएगी, यहाँ से रो-धो कर विदा हो जायगी, मैं अकेली रह जाऊँगी।। यह जान कर दुखी है; पर यह नहीं जानती कि यह सब किसलिए हो रहा है, माता जी और पिता जी क्यों बहिन को घर से निकालने को इतने उत्सुक हो रहे हैं। बहिन ने तो किसी को कुछ नहीं कहा, किसी से लड़ाई नहीं की; क्या इसी तरह एक दिन मुझे भी लोग निकाल देंगे? मैं भी इसी तरह कोने में बैठ कर रोऊँगी; और किसी को मुझ पर दया न आएगी? इसलिए वह भयभीत भी है।