भी उनके स्वभाव में कोई विशेष अन्तर न था। दोनों चञ्चल, खिलाड़िन और सैर-तमाशे पर जान देती थीं। दोनों गुड़ियों का धूम-धाम से ब्याह करती थीं, सदा काम से जी चुराती थीं। माँ पुकारती रहती थी; पर दोनों कोठे पर छिपी बैठी रहती थीं कि न जाने किस काम के लिए बुलाती हैं। दोनों अपने भाइयों से लड़ती थीं, नौकरों को डाटती थीं; और बाजे की आवाज़ सुनते ही द्वार पर आकर खड़ी हो जाती थीं; पर आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई है, जिसने बड़ी को बड़ी और छोटी को छोटी बना दिया है। कृष्णा वही है; पर निर्मला गम्भीर, एकान्तप्रिय और लज्जाशीला हो गई है। इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे। आज उनकी मिहनत ठिकाने लगी है। बाबू भालचन्द्र सिन्हा के ज्येष्ठ पुत्र भुवनमोहन सिन्हा से बात पक्की हो गई है। वर के पिता ने कह दिया है कि आप की खुशी हो दहेज़ दें या न दें, मुझे इसकी परवाह नहीं; हाँ, बारात में जो लोग जायँ उनका आदर-सत्कार अच्छी तरह होना चाहिए, जिसमें मेरी और आपकी जग-हँसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील; पर सञ्चय करना न जानते थे। दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, तो मानो उन्हे आँखें मिल गई। डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रक्खा और उन्हे अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम
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निर्मला
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