यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४५
तीसरा परिच्छेद
 


खुल गया था,अब इसमें सन्देह न था। उस परदे को ढाँकना जरूरी था। अपनी कृपणता को छिपाने के लिए उन्होंने कोई बात उठा न रक्खी थी; पर होने वाली बात होकर रही। पछता रहे थे कि कहाँ से घर में इसकी बात कहने गया, और कहा भी तो उच्च स्वर में। यह दुष्ट भी कान लगाए सुनता रहा; किन्तु अब पछत्ताने से क्या हो सकता था? न जाने किस मनहूस की सूरत देखी थी कि यह विपत्ति गले पड़ी। अगर इस वक्त यहाँ से रुष्ट होकर चला गया, तो वहाँ जाकर बदनाम करेगा; और मेरा सारा कौशल खुल जायगा । अब तो इसका मुँह बन्द कर देना ही पड़ेगा।

यह सोच-विचार करते हुए वह घर में जाकर रँगीलीवाई से बोले-इस दुष्ट ने हमारी तुम्हारी बातें सुन ली। रूठ कर चला जा रहा है।

रँगीली--जब तुम जानते थे कि द्वार पर खड़ा है, तो धीरे से क्यों न बोले?

भाल०--विपत्ति आती है तो अकेले नहीं आती। यह क्या जानता था कि वह द्वार पर कान लगाए खड़ा है?

रँगीली--न जाने किस का मुँह देखा था?

भाल०--वहाँ दुष्ट सामने लेटा हुआ था। जानता तो उधर ताकता ही नहीं। अब तो इस कुछ दे दिला कर राजी करना पड़ेगा।

रँगीली--उँह,जाने भी दो। जब तुम्हें वहाँ विवाह ही नहीं करना है, तो क्या परवाह है? जो चाहे समझे, जो चाहे कहे।

भाल०--या जान न बचेगी। लायो दस रुपये विदाई के