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तीसरा परिच्छेद
 


तर माल तैयार है? लड्डू तो ताजे मालूम होते हैं। तोल दो एक सेर भर; आ जाऊँ वहीं ऊपर न?

यह कह कर मोटेराम जी हलवाई की दुकान पर जा बैठे; और तर माल चखने लगे। खूब छक कर खाया। ढाई-तीन सेर चट कर गए। खाते जाते थे और हलवाई की तारीफ करते जाते थे। साह जी, तुम्हारी दूकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पाया। बनारस वाले ऐसे रसगुल्ले नहीं बना पाते। कलाकन्द अच्छी बनाते हैं। पर तुम्हारी उनसे बुरी नहीं। माल डालने से अच्छी चीज नहीं बन जाती, विद्या चाहिए।

हलवाई--कुछ और लीजिए महाराज! थोड़ी सी रवड़ी मेरी तरफ से लीजिए।

मोटेराम--इच्छा तो नहीं है, लेकिन दे दो पाव भर!

हलवाई--पाव भर क्या लीजिएगा। चीज़ अच्छी है,आध सेर तो लीजिए।

खूब इच्छापूर्ण भोजन करके पण्डित जी ने थोड़ी देर बाजार की सैर की, और नौ बजते-बजते मकान पर आए। यहाँ सन्नाटा-सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रही थी। आपने चबूतरे पर विस्तर जमाया और सो गए।

सबेरे अपने नियमानुसार कोई आठ बजे उठे तो देखा कि बाबू साहब टहल रहे हैं। इन्हें जगा देख कर वह पालागन कर बोले--महाराज,आप रात कहाँ चले गए? मैं बड़ी रात तक आपकी राह देखता रहा। भोजन का सब सामान बड़ी देर तक रक्खा रहा। जब