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सत्ताईसवाँ परिच्छेद
 


शोक,दुरावस्था--एक हो,तो कोई कहे; यहाँ तो त्रैताप का धावा था। उस पर निर्मला ने दवा खाने की क़सम खा ली थी। करती ही क्या! उस थोड़े से रुपयों में दवा की गुंंजाइश कहाँ थी। जहाँ भोजन का ठिकाना न था, वहाँ दवा का जिक्र ही क्या? दिन-दिन सूखती चली जाती थी!

एक दिन रुक्मिणी ने कहा--बहू,इस तरह कब तक घुला करोगी, जी ही से तो जहान है! चलो,किसी वैद्य को दिखा लाऊँ।

निर्मला ने विरक्त भाव से कहा--जिसे रोने ही के लिए जीना हो, उसका मर जाना ही अच्छा।

रुक्मिणी--बुलाने से तो मौत नहीं आती।

निर्मला--मौत तो बिना बुलाए आती है,बुलाने पर क्यों न आएगी। उसके आने में अब बहुत दिन न लगेंगे। बहिन! जै दिन चलती हूँ, उतने साल समझ लीजिए।

रुक्मिणी--दिल ऐसा छोटा मत करो, बहू! अभी तुमने संसार का सुख ही क्या देखा है?

निर्मला--अगर संसार का यही सुख है, जो इतने दिनों से देख रही हूँ, तो उससे जी भर गया। सच कहती हूँ बहिन, इस बच्ची का मोह मुझे बाँधे हुए है; नहीं तो अब तक कभी की चली गई होती। न जाने इस बेचारी के भाग्य में क्या लिखा है?

दोनों महिलाएँ रोने लगीं। इधर जब से निर्मला ने चारपाई पकड़ ली है, रुक्मिणी के हृदय में दया का सोता सा खुल गया है।