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छब्बीसवॉ परिच्छेद
 

निर्मला-अहीरिन दूध न दे गई थी?

रुक्मिणी-कहती थी,पिछले पैसे दे दो तो दूं। तुम्हारा जी अब कैसा है?

निर्मला-मुझे कुछ नहीं हुआ है। कल जरा देह गरम हो आई थी।

रुक्मिणी-डॉक्टर साहब का तो बुरा हाल हो गया। निर्मला ने घबड़ाकर पूछा-क्या हुआ क्या? कुशल से हैं न?

रुक्मिणी-कुशल से हैं कि लाश उठाने की तैयारी हो रही है। कोई कहता है जहर खा लिया था,कोई कहता है दिल का चलना बन्द हो गया था। भगवान जानें क्या हुआ था।

निर्मला ने एक ठण्डी साँस ली;और रुंधे हुए कण्ठ से बोली-हाय! भगवान्,सुधा की क्या गति होगी? वह कैसे जिएगी!

यह कहते-कहते वह रो पड़ी;और बड़ी देर तक सिसकती रही। तब चारपाई से उतर कर सुधा के पास जाने को तैयार हुई। पाँव थर-थर कॉप रहे थे,दीवार थामें खड़ी थी;पर जी न मानता था! न जाने सुधा ने यहाँ से जाकर पति से क्या कहा? मैं ने तो उससे कुछ कहा भी नहीं,न जाने मेरी बातों का वह क्या मतलव समझी! हाय! ऐसे रूपवान्,ऐसे दयालु,ऐसे सुशील प्राणी का यह अन्त! अगर निर्मला को मालूम होता कि उसके क्रोध का यह भीषण परिणाम होगा,तो वह जहर का घूंट पीकर भी उस बात को हँसी में उड़ा देती!