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निर्मला
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निर्मला-कसम-असम न रखाना भाई,मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा,भूठ किसे लगा हूँ?

सुधा-खाओ मेरी कसम?

निर्मला-तुम तो नाहक जिद करती हो।

सुधा-अगर तुमने न बताया निर्मला,तो मैं समझंगी तुम्हें मुझसे ज़रा भी प्रेम नहीं है।बस,सब जवानी जमा-खर्च है। मैं तुमसे किसी बात का परदा नहीं रखती;और तुम मुझे गैर समझती हो। मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा भरोसा था। अब जान गई कि कोई किसी का नहीं होता।

सुधा की आँखें सजल हो गई। उसने बच्ची को गोद से उतार दिया;और द्वार की ओर चली। निर्मला ने उठ कर उसका हाथ पकड़ लिया;और रोती हुई बोली--सुधा,मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, मत पूछो। तुम्हें सुन कर दुख होगा;और शायद मैं फिर तुम्हें अपना मुँह न दिखा सकूँ। मैं अभागिनी न होती,तो यह दिन ही क्यों देखती। अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि,वे संसार से मुझे उठा लें।अभी यह दुर्गति हो रही है,तो आगे न जानें क्या होगा!

इन शब्दों में जो सङ्केत था,वह बुद्धिमती सुधा से छिपा न रह सका। वह समझ गई कि डॉक्टर साहब ने कुछ छेड़-छाड़ की है। उनका हिचक-हिचक कर बातें करना;और उसके प्रश्नो को टालना,उनकी वह ग्लानिमय,कान्तिहीन मुद्रा उसे याद आ गई।