मालूम न होता था कि माथे का अन्त कहाँ है; और सिर का आरम्भ कहाँ। बस, कोयले की एक सजीव मूर्ति थी। आप को गर्मी बहुत सताती थी। दो आदमी खड़े पङ्खा झल रहे थे; उस पर भी पसीने का तार बंधा हुआ था। आप आवकारी के विभाग में एक ऊँचे ओहदे पर थे; ५०० वेतन मिलता था, ठेकेदारों से खूब रिशक्त लेते थे। ठेकेदार शराब के नाम पानी वेचें, चौवीसों घण्टे दूकान खुली रक्खें; आप को केवल खुश रखना काफी था। सारा कानून आप की खुशी थी। इतनी भयङ्कर मूर्ति थी कि चाँदनी रात में उन्हें देख कर सहसा लोग चौंक पड़ते थे--बालक और स्त्रियाँ ही नहीं; पुरुष तक सहम जाते थे। चाँदनी रात इसलिए कहा कि अँधेरी रात में तो उन्हें कोई देख ही न सकता था--श्यामता अन्धकार में विलीन हो जाती थी। केवल आँखों का रङ्ग लाल था। जैसे पक्का मुसलमान पाँच वार नमाज पढ़ता है, वैसे आप पाँच बार शराब पीते थे। मुफ्त की शराब तो काजी को हलाल है; फिर आप तो शराव के अफसर ही थे, जितनी चाहें पिएँ; कोई हाथ पकड़ने वाला न था। जब प्यास लगती शराब पी लेते। जैसे कुछ रङ्गों में परस्पर सहानुभूति है, उसी तरह कुछ रङ्गों में परस्पर विरोध है। लालिमा के संयोग से कालिमा और भी भयङ्कर हो जाती है।
बाबू साहब ने पण्डित जी को देखते ही कुर्सी से उठ कर कहा--अख्वाह! आप हैं। आइए, आइए। धन्य भाग; और कोई है? कहाँ चले गए सब के सव, झगडू, गुरदीन, छकौड़ी, भवानी, रामगुलाम; कोई है? क्या सब के सब मर गए? चलो