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पच्चीसवाँ परिच्छेद

दिन गुज़रने लगे। एक महीना पूरा निकल गया; लेकिन मुन्शी जी न लौटे। कोई ख़त भी नहीं भेजा। निर्मला को अब नित्य यही चिन्ता बनी रहती कि वह लौट कर न आए तो क्या होगा? उसे इसकी चिन्ता न होती थी कि उन पर क्या बीत रही होगी, वह कहाँ मारे-मारे फिरते होंगे, स्वास्थ्य कैसा होगा? उसे केवल अपनी और इससे भी बढ़ कर बच्ची की चिन्ता थी। गृहस्थी का निर्वाह कैसे होगा? ईश्वर कैसे बेड़ा पार लगावेंगे? बच्ची का क्या हाल होगा? उसने कतर-ब्योंत करके जो रुपये जमा कर रक्खे थे, उसमें कुछ न कुछ रोज़ ही कमी होती जाती थी। निर्मला को उसमें से एक-एक पैसा निकालते इतनी अखर होती थी, मानो कोई उसकी देह से रक्त निकाल रहा हो। झुँझला कर मुन्शी जी को कोसती। लड़की किसी चीज़ के लिए रोती, तो उसे अभागिन, कलमुँही कह कर झल्लाती। यही नहीं,