लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गई। थोड़ी देर के लिए मुन्शी जी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपनी अन्तर्वेदना भूल गए।
भोजन करके मुन्शी जी बाहर चले गए। निर्मला खड़ी ताकती रही। कहना चाहती थी-व्यर्थ जा रहे हो;पर कह न सकती थी। कुछ रुपए निकाल कर देने का विचार करती थी;पर दे न सकती थी।
अन्त को न रहा गया। रुक्मिणी से बोली-दीदी जी,जरा समझा दीजिए,कहाँ जा रहे हैं। मेरी तो जबान पकड़ी जायगी;पर बिना बोले रहा नहीं जाता। बिना ठिकाने कहाँ खोजेंगे? व्यर्थ की हैरानी होगी।
रूक्मिणी ने करुण-सूचक नेत्रों से देखा;और अपने कमरे में चली गई।
निर्मला बच्ची को गोद में लिए सोच रही थी कि शायद जाने के पहले बच्ची को देखने या मुझसे मिलने के लिए आवें; पर उसकी आशा विफल हो गई। मुन्शी जी ने विस्तर उठाया और ताँगे पर जा बैठे।
उसी वक्त निर्मला का कलेजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा कि अब इनसे भेंट न होगी। वह अधीर होकर द्वार पर आई कि मुन्शी जी को रोक ले; पर ताँगा चल दिया था!