बुलाया;और करुण-स्वर में बोले तू तो घर की सब बात जानती है;बता आज क्या हुआ था?
भुङ्गी-बाबू जी,झूठ न बोलूँगी; मालिकिन छुड़ा देंगी और क्या, दूसरे का लड़का इस तरह नहीं रक्खा जाता। जहाँ कोई काम हुआ,बस बाजार भेज दिया। दिन भर बाज़ार दौड़ते बीतता था। आज लकड़ी लाने न गए, तो चूल्हा ही नहीं जला। कहो तो मुंह फुलावें। जब आप ही नहीं देखते,तो दूसरा कौन देखेगा। चलिए भोजन कर लीजिए,बहू जी कब से बैठी हैं।
मुन्शी जी कह दे इस वक्त न खायेंगे।
मुन्शी जी फिर अपने कमरे में चले गए; और एक लम्बी साँस ली। वेदना से भरे हुए ये शब्द उनके मुँह से निकल पड़े-ईश्वर, क्या अभी दण्ड पूरा नहीं हुआ? क्या इस अन्धे की लकड़ी का भी हाथ से छीन लोगे?
निर्मला ने आकर कहा-आज सियाराम अभी तक नहीं आए। कहती रही कि खाना बनाए देती हूँ,खा लो; मगर न जाने कब उठ कर चल दिए। न जाने कहाँ घूम रहे हैं। बात तो सुनते ही नहीं। अब कब तक उनकी राह देखा करूँ। आप चल कर खा लीजिए। उनके लिए खाना उठा कर रख दूंगी।
मुन्शी जी ने निर्मला की ओर कठोर नेत्रों से देख कर कहा-अभी कै बजे होंगे?
निर्मला-क्या जाने,शायद दस बजे होंगे।
मुन्शी जी-जी नहीं,बारह बजे हैं।