फ़र्लाङ्ग तक चले। तब लौट कर द्वार पर आए और; पूछा -- सिया बाबू आ गए?
अन्दर से जवाब आया -- अभी नहीं।
मुन्शी जी फिर बाँईं ओर चले और गली के नुक्कड़ तक गए। सियाराम कहीं न दिखाई दिया। वहाँ से फिर घर लौटे; और द्वार पर खड़े होकर पूछा -- सिया बाबू आ गए?
अन्दर से जवाब मिला -- नहीं।
कोतवाली के घण्टे में दस बजने लगे।
मुन्शी जी बड़े वेग से कम्पनी बाग की तरफ़ चले। सोचने लगे शायद वहाँ घूमने गया हो; और घास पर लेटे-लेटे नींद आ गई हो। बारा में पहुँच कर उन्होंने हरेक वैञ्च को देखा, चारों तरफ़ घूमे, बहुत से आदमी घास पर पड़े हुए थे; पर सियाराम का निशान न था। उन्होंने सियाराम का नाम ले लेकर ज़ोर से पुकारा; पर कहीं से आवाज़ न आई।
ख्याल आया शायद स्कूल में कोई तमाशा हो रहा हो। स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। स्कूल की तरफ़ चले; पर आधे रास्ते ही से लौट पड़े। बाज़ार बन्द हो गया था। स्कूल में इतनी रात तक तमाशा नहीं हो सकता। अब की उन्हें आशा हो रही थी कि सियाराम लौट आया होगा। द्वार पर आकर उन्होंने पुकारा -- सिया बाबू आए? किवाड़ बन्द थे। कोई आवाज़ न आई। फिर ज़ोर से पुकारा। भुङ्गी किवाड़ खोल कर बोली -- अभी तो नहीं आए। मुन्शी जी ने धीरे से भुङ्गी को अपने पास