भुङ्गी ने कुछ जवाब न दिया। नाक सिकोड़ कर मुँह फेरे हुए चली गई।
मुन्शी जी आहिस्ता-आहिस्ता आकर अपने कमरे में बैठ गए। आज पहली बार उन्हें निर्मला पर क्रोध आया; लेकिन एक ही क्षण में क्रोध का आघात अपने ऊपर होने लगा। उस अँधेरे कमरे में फ़र्श पर लेटे हुए वह अपने को पुत्र की ओर से इतने उदासीन हो जाने पर धिक्कारने लगे। दिन भर के थके थे। थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गई।
भुङ्गी ने आकर पुकारा -- बाबू जी, रसोई तैयार है। मुन्शी जी चौंक कर उठ बैठे। कमरे में लैम्प जल रहा था।
पूछा -- कै बज गए भुङ्गी। मुझे तो नींद आ गई थी।
भुङ्गी ने कहा -- कोतवाली के घण्टे में तो नौ बज गए हैं; और हम नाहीं जानित।
मुन्शी जी -- सिया बाबू आए?
भुङ्गी -- आए होंगे तो घर ही में न होंगे।
मुन्शी जी ने झुॅझला कर पूछा -- मैं पूछता हूॅ आए कि नहीं? और तू न जाने क्या-क्या जवाब देती है? आए कि नहीं?
भुङ्गी -- मैंने तो नहीं देखा, झूठ कैसे कह दूॅ।
मुन्शी जी फिर लेट गए और बोले -- उनको आ जाने दे,तब चलता हूँ।
आध घण्टे तक द्वार की ओर आँख लगाए मुन्शी जी लेटे रहे। तब वह उठ कर बाहर आए; और दाहिने हाथ कोई दो