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निर्मला
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मुन्शी जी ने कुछ जवाब न दिया। जरा देर तक तो प्रतीक्षा करते रहे कि शायद जल-पान के लिए कुछ मिलेगा; लेकिन जब निर्मला ने पानी तक न मँगवाया, तो बेचारे निराश होकर बाहर चले गए। सियाराम के कष्ट का अनुमान करके उनका चित्त चञ्चल हो उठा। सारा दिन गुज़र गया, बेचारे ने अभी तक कुछ नहीं खाया। कमरे में पड़ा होगा। एक बार भुङ्गी ही से लकड़ी मँगा ली जाती, तो ऐसा क्या नुकसान हो जाता। ऐसी किफ़ायत भी किस काम की कि घर के आदमी भूखे रह जायँ। अपना सन्दूक़चा खोल कर टटोलने लगे कि शायद दो-चार आने पैसे मिल जायँ। उसके अन्दर के सारे काग़ज़ निकाल डाले, एक-एक खाना देखा,नीचे हाथ डाल कर देखा; पर कुछ न मिला। अगर निर्मला के सन्दूक में पैसे न फलते थे,तो इस सन्दूक़चे में शायद इसके फूल भी न लगते हों; लेकिन संयोग ही कहिये कि काग़ज़ों को झाड़ते हुए एक चवन्नी गिर पड़ी। मारे हर्ष के मुन्शी जी उछल पड़े। बड़ी-बड़ी रक़में इसके पहले कमा चुके थे; पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ, उतना पहले कभी न हुआ था। चवन्नी हाथ में लिए हुए सियाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा। कोई जबाब न मिला। तब कमरे में जाकर देखा। सियाराम का कहीं पता नहीं -- क्या अभी स्कूल से नहीं लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुन्शी जी ने अन्दर जाकर भुङ्गी से पूछा। मालूम हुआ कि स्कूल से लौट आए।

मुन्शी जी ने पूछा -- कुछ पानी पिया है?