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तेईसवाँ परिच्छेद
 

निर्मला -- और उस सीर वाले दावे में?

मुन्शी जी -- उसमें भी हार हो गई।

निर्मला -- तो आज आप किसी अभागे का मुँह देख कर उठे थे।

मुन्शी जी से अब काम बिलकुल न हो सकता था। एक तो उनके पास मुक़दमे आते ही न थे; और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे। जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपए उधार लाकर निर्मला को दे देते। प्रायः सभी मित्रों से कुछ न कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न लगा।

निर्मला ने चिन्तापूर्ण स्वर में कहा -- आमदनी का यह हाल है, तो ईश्वर ही मालिक है; उस पर बेटे का यह हाल है कि बाज़ार जाना मुश्किल। भुङ्गी ही से सब काम कराने का जी चाहता है। घी लेकर ग्यारह बजे लौटे। कितना कह कर हार गई कि लकड़ी लेते आओ; पर सुना ही नहीं।

मुन्शी जी -- तो खाना नहीं पकाया?

निर्मला -- ऐसी ही बातों से तो आप मुक़दमे हारते हैं। ईंधन के बिना किसी ने खाना बनाया है कि मैं ही बना लेती!

मुन्शी जी -- तो बिना कुछ खाए ही चला गया?

निर्मला -- घर में और क्या रक्खा था जो खिला देती?

मुन्शी जी ने डरते-डरते कहा -- कुछ पैसे-वैसे न दे दिए?

निर्मला ने भौंहें सिकोड़ कर कहा -- घर में पैसे फलते हैं न?