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निर्मला
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को पेट भर भोजन भी नहीं मिलता; पर घर से विरक्त वही होते हैं, जो मातृ-स्नेह से वञ्चित हैं।

सियाराम घर की ओर चला ही था कि सहसा बाबा परमानन्द एक गली से आते दिखाई दिए।

सियाराम ने जाकर उनका हाथ पकड़ लिया। परमानन्द ने चौंक कर पूछा -- बच्चा, तुम यहाँ कहाँ?

सियाराम ने बात बना कर कहा -- एक दोस्त से मिलने आया था। आपका स्थान यहाँ से कितनी दूर है?

परमानन्द -- हम लोग तो आज यहाँ से जा रहे हैं, बच्चा हरिद्वार की यात्रा है।

सियाराम ने हतोत्साह होकर कहा -- क्या आज ही, चले जाइएगा?

परमानन्द -- हाँ बच्चा, अब लौट कर आऊँगा तो दर्शन दूँगा।

सियाराम ने कातर कण्ठ से कहा -- लौट कर!

परमानन्द -- जल्द ही आऊँगा; बच्चा!

सियाराम ने दीन-भाव से कहा -- मैं भी आपके साथ चलूँगा।

परमानन्द -- मेरे साथ! तुम्हारे घर के लोग जाने देंगे?

सियाराम -- घर के लोगों को मेरी क्या पर्वाह है। इसके आगे सियाराम और कुछ न कह सका। उसके अश्रु-पूरिव नेत्रों ने उसकी करुण-गाथा उससे कहीं विस्तार के साथ सुना दी, जितनी उसकी वाणी कर सकती थी।