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बाईसवाँ परिच्छेद
 


दूकानों,गलियों और मन्दिरों में उस आशय को खोजता फिरता था,जिसके बिना उसे अपना जीवन दुस्सह हो रहा था। एक वार एक मन्दिर के सामने उसे कोई साधु खड़ा दिखाई दिया। उसने समझा वही हैं।हर्षोल्लास से वह फूल उठा।दौड़ा और जाकर साधु के पास खड़ा हो गया;पर यह कोई और ही महात्मा थे। निराश होकर आगे बढ़ गया।

धीरे-धीरे सड़कों पर सन्नाटा छा गया,घरों के द्वार वन्द होने लगे। सड़क की पटरियों पर और गलियों में बसखटे या बोरे विछा-विछा कर भारत की प्रजा सुख-निद्रा में मग्न होने लगी;लेकिन सियाराम घर न लौटा।उस घर से उसका दिल फट गया था,जहाँ किसी को उससे प्रेम न था,जहाँ वह किसी पराश्रित की भाँति पड़ा हुआ था । केवल इसीलिए कि उसे और कहीं शरण नहीं थी। इस वक्त भी उसके घर न जाने की किसे चिन्ता होगी? बाबू जी भोजन करके लोटे होंगे,अम्माँ जी भी आराम करने जा रही होंगी। किसी ने मेरे कमरे की ओर झाँक कर देखा भी न होगा। हाँ,बुआ जी घबड़ा रही होंगी। वही अभी तक मेरी राह देखती होंगी। जब तक मैं न जाऊँगा,भोजन न करेंगी।

रुक्मिणी की याद आते ही सियाराम घर की ओर चला। वह अगर और कुछ न कर सकती थी,तो कम से कम उसे गोद में चिमटा कर रोती तो थी। उसके वाहर से आने पर हाथ-मुँह धोने के लिए पानी तो रख देती थी। संसार में सभी वालक दूध की कुल्लियाँ नहीं करते, सभी सोने के कौर नहीं खाते। कितनों