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निर्मला
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निर्मला-एक दिन देर ही हो जायगी, तो कौन हरज है ? यह भी तो घर ही का काम है।

सिया-रोज तो यही धन्धा लगा रहता है । कभी वक्त पर नहीं पहुँचता । घर पर भी पढ़ने का वक्त नहीं मिलता। कोई सौदा वे दो-चार बार लौटाए नहीं लिया जाता । डाँट तो मुझ पर पड़ती है; शर्मिन्दा तो मुझे होना पड़ता है, आपको क्या ?

निर्मला-हाँ, मुझे क्या ? मैं तो तुम्हारी दुश्मन ठहरी अपना होता तब तो उसे दुख होता । मैं तो ईश्वर से मनाया करती हूँ कि तुम पढ़-लिख न सको। मुझमें तो सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं तुम्हारा कोई कुसूर नहीं । विमाता का नाम ही बुरा होता है। अपनी माँ विष भी खिलाए तो अमृत है । मैं अमृत भी पिलाऊँ तो विष हो जाय । तुम लोगों के कारण मिट्टी में मिल गई, रोते-रोते उम्र कटी जाती है। मालूम ही न हुआ कि भगवान ने किस लिए जन्म दिया था; और तुम्हारी समझ में मैं बिहार कर रही हूँ। तुम्हें सताने से मुझे मज़ा आता है । भगवान् भी नहीं पूछते कि सारी विपत्ति का अन्त हो जाता।

यह कहते-कहते निर्मला को आँखें भर आई। अन्दर चली गई । सियाराम उसको रोते देख कर सहम उठा । उसे ग्लानि तो नहीं आई; हाँ, यह शङ्का हुई कि न जाने कौनसा दण्ड मिले। चुपके से हाँडी उठा ली; और घी लौटाने चला, इस तरह जैसे कोई कुत्ता किसी नए गाँव में जाता है। उसी कुत्ते की भाँति उसकी मनोगत वेदना उसके एक-एक भाग से प्रकट हो रही