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उन्नीसवाँ परिच्छेद
 

चुप करना चाहा; पर जियाराम निःशङ्क खड़ा ईटों का जवाब पत्थर से देता रहा। यहाँ तक कि निर्मला को भी उस पर क्रोध आ गया। यह कल का छोकरा न किसी काम का न काज का, यों खड़ा टर्रा रहा है; जैसे घर भर का पालन-पोषण यही करता हो। त्योरियाँ चढ़ा कर बोली-बस, अब बहुत हुआ जियाराम, मालूम हो गया कि तुम बड़े लायक हो, वाहर जाकर वैठो।

मुन्शी जी अव तक तो जरा दब-दब कर बोलते रहे, निर्मला की शह पाई तो दिल बढ़ गया। दाँत पीस कर लपके और इसके पहले कि निर्मला उनके हाथ पकड़ सके, एक थप्पड़ चलाही दिया। थप्पड़ निर्मला के मुँह पर पड़ा, वही सामने पड़ी। माथा चकरा गया। मुन्शी जी के सूखे हुए हाथों में भी इतनी शक्ति है, इसका वह अनुमान न कर सकती थी। सिर पकड़ कर बैठ गई। मुन्शी जी का क्रोध और भी भड़क उठा, फिर घूंसा चलाया;पर अब की जियाराम ने उनका हाथ पकड़ लिया; और पीछे ढकेल कर बोला-दूर से बातें कीजिए; क्यों नाहक अपनी बेइज्जती करवाते हैं। अम्माँ जी का लिहाज़ कर रहा हूँ, नहीं तो दिखा देता।

यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। मुन्शी जी संज्ञा-शून्य •से खड़े रहे। इस वक्त अगर जियाराम पर दैवी वज्र गिर पड़ता, तो शायद उन्हें हार्दिक आनन्द होता। जिस पुत्र को कभी गोद में लेकर निहाल हो जाते थे, उसी के प्रति आज भाँति-भाँति की दुष्कल्पनाएँ मन में आ रही थीं।

रुक्मिणी अब तक तो अपनी कोठरी में थी। अब आकर

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