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अठारहवाँ परिच्छेद
 


आचरण से तो उन्हें प्रसन्न रख सकते हो। बुड्ढों को प्रसन्न करना बहुत कठिन काम नहीं। यकीन मानो -- तुम्हारा हँस कर वोलना ही उन्हें ख़ुश करने को काफ़ी है। इतना पूछने में तुम्हारा क्या खच होता है -- बाबू जी, आपकी तबीयत कैसी है? वह तुम्हारी यह उद्दण्डता देख कर मन ही मन कुढ़ते रहते हैं। मैं तुमसे सच कहता हूँ, कई बार रो चुके हैं! उन्होंने मान लो शादी करने में ग़लती की। इसे वह भी स्वीकार करते हैं; लेकिन तुम अपने कर्त्तव्य से क्यों मुँह मोड़ते हो। वह तुम्हारे पिता हैं, तुम्हें उनकी सेवा करनी चाहिए। एक बात भी ऐसी मुँह से न निकालनी चाहिए, जिससे उनका दिल दुखे। उन्हें यह ख्याल करने का मौका ही क्यों दो कि सब मेरी कमाई खाने वाले हैं, बात पूछने वाला कोई नहीं। मेरी उम्र तुमसे कहीं ज्य़ादा है जियाराम; पर आज तक मैंने अपने पिता जी की किसी बात का जवाब नहीं दिया! वह आज भी मुझे डाटते हैं, सिर झुका कर सुन लेता हूँ। जानता हूँ, यह जो कुछ कहते हैं, मेरे भले ही को कहते हैं। माता-पिता से बढ़ कर हमारा हितैषी और कौन हो सकता है? उनके ऋण से कौन मुक्त हो सकता है?

जियाराम बैठा रोता रहा! अभी उसके सद्भावों का सम्पूर्णतः लोप न हुआ था। अपनी दुर्जनता उसे साफ़ नज़र आ रही थी। इतनी ग्लानि उसे बहुत दिनों से न आई थी। रोकर डॉक्टर साहब से कहा -- मैं बहुत ही लज्जित हूँ। दूसरों के बहकाने में आ गया था। अब आप मेरी ज़रा भी