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अठारहवाँ परिच्छेद
 

भाई साहब को अदब और तमीज़ का जो इनाम मिला, उसकी मुझे भूख नहीं ! मुझ में जहर खाकर प्राण देने की हिम्मत नहीं! ऐसे अदव को दूर ही से दण्डवत् करता हूँ!

मुन्शी जी-तुम्हें ऐसी बातें करते हुए शर्म नहीं आती ?

जियाराम-लड़के अपने बुजुर्गों ही की नकल करते हैं ।

मुन्शी जी का क्रोध शान्त हो गया ! जियाराम पर उसका कुछ भी असर न होगा, इसका उन्हें यकीन हो गया । उठ कर टहलने चले गए । आज उन्हें सूचना मिल गई कि इस घर का शीघ्र ही सर्वनाश होने वाला है !!

उस दिन से पिता और पुत्र में किसी न किसी बात पर रोज ही एक झपट हो जाती । मुन्शी जी ज्यों-ज्यों तरह देते थे,जियाराम और भी शेर होता जाता था । एक दिन जियाराम ने रुक्मिणी से यहाँ तक कह डाला-बाप है, यह समझ कर छोड़ देता हूँ, नहीं तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं कि चाहूँ तो भरे बाजार में पिटवा दूं। रुक्मिणी ने मुन्शी जी से कह दिया। मुन्शी जी ने प्रकट रूप से तो चेपरवाई ही दिखाई;, पर उनके मन में शङ्का समा गई। शाम को सैर करना छोड़ दिया । यह नई चिन्ता सवार हो गई। इसी भय से निर्मला को भी न बुलाते थे कि यह शैतान उसके साथ भी यही बर्ताव करेगा। जियाराम एक बार दबी जवान कह भी चुका था-देखू, अब की कैसे इस घर में आती हैं । दूर ही से न दुत्कार दूं, तो जियाराम नाम नहीं । बुड्डू मियाँ कर ही क्या लेंगे। मुन्शी जी भी खूब समझ गए थे कि मैं इसका कुछ भी नहीं