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निर्मला
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मुश्किल यह थी कि लोग इन टिप्पणियों पर ही सान्तुष्ट न होते थे। कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें अब जियाराम और सियाराम से विशेष स्नेह हो गया था। वे दोनों बालकों से बड़ी सहानुभूति प्रकट करते; यहाँ तक कि दो-एक महिलाएँ तो उनकी माता के शील और स्वभाव को याद करके आँसू बहाने लगती थीं। हाय-हाय! बेचारी क्या जानती थी कि उसके मरते ही उसके लाड़लों की यह दुर्दशा होगी! अब दूध-मक्खन काहे को मिलता होगा?

जियाराम कहता-मिलता क्यों नहीं?

महिला कहती-मिलता है, अरे बेटा! मिलना भी कई तरह का होता है। पानी वाला दूध टके सेर का मँगा कर रख दिया, पियो चाहे न पियो-कौन पूछता है? नहीं तो बेचारी नौकर से दूध दुहवा कर मँगवाती थी, वह तो चेहरा ही कह देता है। दूध की सूरत छिपी नहीं रहती-वह सूरत ही नहीं रही!

जियाराम को अपनी माँ के समय के दूध का स्वाद तो याद था नहीं, जो इस आक्षेप का उत्तर देता; और न उस समय की अपनी सूरत ही याद थी, चुपका रह जाता। इन शुभाकांक्षाओं का असर भी पड़ना स्वाभाविक था। जियाराम को अपने घर वालों से चिढ़ होती जाती थी। मुन्शी जी मकान नीलाम हो जाने के बाद दूसरे घर में उठ आए, तो किराए की फिक्र हुई। निर्मला ने मक्खन बन्द कर दिया। जब वह आमदनी ही नहीं रही, तो वह खर्च कैसे रहता? दोनों कहार अलग कर दिए गए, जियाराम को