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सोलहवाँ परिच्छेद
 

निर्मला—देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरें लेती हूँ। मैंने तुम्हारा मान रखने को ज़रा सा लिख दिया था; और तुम सचमुच आ पहुँची। भला वहाँ वाले क्या कहते होंगे?

सुधा—सब से कह कर आई हूँ।

निर्मला—अब तुम्हारे पास कभी न आऊँगी। इतना तो इशारा कर देती कि डॉक्टर साहब से परदा रखना।

सुधा—उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई। न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़ कर कैसी चीज़ खोदी! अब तो तुम्हें देख कर लाला जी हाथ मल कर रह जाते हैं। मुँह से तो कुछ नहीं कहते; पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।

निर्मला—अब तुम्हारे घर कभी न जाऊँगी।

सुधा—अब पिण्ड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नहीं देखी है।

द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठे जल-पान कर रहे थे। मुन्शी तोताराम की बग़ल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें बैठे देखा और कलेजा थाम कर रह गई। एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, दूसरा......इस विषय में कुछ न कहना ही उचित है।

निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था; पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यही जी चाहता था कि बुला कर खूब फटकारूँ, ऐसे-ऐसे ताने मारूँ कि वह