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पन्द्रहवाँ परिच्छेद
 

निर्मला-मैं कहती हूँ, दिन को तुझे समय नहीं मिलता, जो पिछली रात को चर्खा लेकर बैठी है?

कृष्णा-दिन को तो फुरसत ही नहीं मिलती।

निर्मला-(सूत देख कर) सूत तो बहुत महीन है।

कृष्ण-कहाँ वहिन, यह सूत तो मोटा है। मैं बारीक सूत कात कर उनके लिए एक साफा बनाना चाहती हूँ। यही मेरा उपहार होगा।

निर्मला-बात तो तूने खूब सोची है। इससे अधिक मूल्यवान वस्तु उनकी दृष्टि में और क्या होगी? अच्छा उठ इस वक्त; कल कातना! कहीं बीमार पड़ जायगी; तो यह सब धरा रह जायगा।

कृष्णा-नहीं मेरी बहिन, तुम चल कर सोओ; मैं अभी आती हूँ। निर्मला ने अधिक आग्रह नहीं किया- लेटने चली गई। मगर किसी तरह नीद न आई। कृष्णा की यह उत्सुकता और यह उमङ्ग देख कर उसका हृदय किसी अलक्षित आकांक्षा से आन्दोलित हो उठा। ओह! इस समय इसका हृदय कितना प्रफुल्लित हो रहा है! अनुराग ने इसे कितना उन्मत्त कर रक्खा है। तव उसे अपने विवाह की याद आई। जिस दिन तिलक गया था, उसी दिन से उसकी सारी चञ्चलता, सारी सजीविता बिदा हो गई थी! वह अपनी कोठरी में बैठी अपनी किस्मत को रोती थी; और ईश्वर से विनय करती थी कि प्राण निकल जायें! अपराधी जैसे दण्ड की प्रतीक्षा करता है, उसी भाँति वह विवाह की प्रतीक्षा