यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
१६
 


आकर उसने एक बार आकाश की ओर देखा, मानो तारागण को साक्षी दे रही है कि मैं इस घर से कितनी निर्दयता से निकाली जा रही हूँ। रात के ग्यारह बज गए थे। घर में सन्नाटा छा गया था, दोनों बेटों की चारपाई उसी के कमरे में रहती थी। वह अपने कमरे में आई, देखा चन्द्रभानु सोया है। सब से छोटा सूर्यभानु चारपाई पर से उठ बैठा है। माता को देखते ही वह बोला--तुम तहाँ दईती अम्माँ? कल्याणी दूर हो खड़े-खड़े बोली--कहीं तो नहीं बेटा, तुम्हारे बाबू जी के पास गई थी।

सूर्य०--तुम तली दई, मुजे अतेले दर लदता ता। तुम त्यों तली दुई ती; बतायो?

यह कह बच्चे ने गोद चढ़ने के लिए दोनों हाथ फैला दिए। कल्याणी अब अपने को न रोक सकी। मातृ-स्नेह के सुधा-प्रवाह से उसका सन्तप्त हृदय परिप्लावित हो गया। हृदय के कोमल पौधे, जो क्रोध के ताप से मुरझा गए थे, फिर हरे हो गए। आँखें सजल हो गई। उसने बच्चे को गोद में उठा लिया; और उसे छाती से लगा कर बोली--तुमने मुझे पुकार क्यों न लिया; बेटा?

सूर्य०--पुकालता तो ता, तुम छुनती ही न तीं। बताओ, अब तो तबी न दाबोगी?

कल्याणी--नहीं भैया, अब कभी न जाऊँगी।

यह कह कर कल्याणी सूर्यभानु को लेकर चारपाई पर लेटी। माँ के हृदय से लिपटते ही बालक निःशङ्क होकर सो गया। कल्याणी के मन में सङ्कल्प-विकल्प होने लगे। पति की बातें याद