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पन्द्रहवाँ परिच्छेद
 

वकील साहब स्टेशन तक पहुँचाने आए। नन्हीं बच्ची से उन्हें बहुत प्रेम था। छोड़ते ही न थे;यहाँ तक कि निर्मला के साथ चलने को तैयार हो गए लेकिन विवाह से एक महीने पहले उनका ससुराल जा बैठना निर्मला को उचित न मालूम हुआ।

निर्मला ने अपनी माता से अब तक अपनी विपत्ति-कथा न कही थी। जो बात हो गई,उसका रोना रोकर माता को कष्ट देने और रुलाने से क्या फायदा? इसलिए उसकी माता समझती थी,निर्मला बड़े आनन्द से है। अब जो निर्मला की सूरत देखी,तो मानो उसके हृदय पर धक्का सा लग गया। लड़कियाँ ससुराल से घुल कर नहीं आती; फिर निर्मला जैसी लड़की,जिसको सुख की सभी सामग्रियाँ प्राप्त थीं! उसने कितनी ही लड़कियों को दौज की चन्द्रमा की भाँति ससुराल जाते और पूर्णचन्द्र वन कर आते देखा था! मन में कल्पना कर रक्खी थी,निर्मला का रङ्ग निखर गया होगा, देह भर कर सुडौल हो गई होगी-अङ्गप्रत्यङ्ग की शोभा कुछ और ही हो गई होगी। अब जो देखा,तो वह आधी भी न रही थी! न यौवन की चञ्चलता थी,न वह विहँसित छवि,जो हृदय को मोह लेती है! वह कमनीयता,वह सुकुमारता जो विलासमय जीवन से आ जाती है,यहाँ नाम को न थी। मुख पीला,चेष्टा गिरी हुई, अङ्ग शिथिल,उन्नीसवें ही वर्ष में वुड्ढी हो गई थी। जव माँ-बेटियाँ रो-धोकर शान्त हुई, तो माता ने पूछा-क्यों री, तुझे वहाँ खाने को न मिलता था? इससे कहीं अच्छी तो तू यहीं थी। वहाँ तुझे क्या तकलीफ थी?

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