शत-गुण स्नेह से लड़की को हृदय से लगा लिया; मानो उनसे कह रही है- अगर तुम इसके बोझ से दबे जाते हो, तो आज से मैं इस पर तुम्हारा साया भी न पड़ने दूंगी। जिस रत्न को मैं ने इतनी तपस्या के बाद पाया है, उसका निरादर करते हुए तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता? वह उसी क्षण शिशु को गोद से चिपटाए हुए अपने कमरे में चली आई; और देर तक रोती रही! उसने पति की इस उदासीनता को समझने की ज़रा भी चेष्टा न की; नहीं तो शायद वह उन्हें इतना कठोर न समझती। उसके सिर पर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था,जो उसके पति पर आ पड़ा था? क्या वह सोचने की चेष्टा करती, तो इतना भी उसकी समझ में न आता?
मुन्शी जी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई। माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरक्त रहता है कि भविष्य की चिन्ता और बाधाएँ उसे जरा भी भयभीत नहीं करती! उसे अपने अन्तःकरण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उसके सामने परास्त कर देती है। मुन्शी जी तुरन्त दौड़े हुए घर में आए; और शिशु को गोद में लेकर बोले-मुझे याद आता है, मन्सा भी ऐसा ही था-बिलकुल ऐसा ही!
निर्मला-दीदी जी भी तो यही कहती हैं!
मुन्शी जी-बिलकुल वही बड़ी-बड़ी आँखें और लाल-लाल ओंठ हैं। ईश्वर ने मुझे मेरा मन्साराम इस रूप में दे दिया। वही 'माथा है, वही मुँह, वही हाथ-पाँव! ईश्वर,तुम्हारी लीला अपार है!!