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निर्मला
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निर्मला अच्छी से अच्छी चीजें पकाती;पर मुन्शी जी दो-चार कौर से अधिक न खा सकते! ऐसा जान पड़ता कि कौर मुँह से निकला आता है! मन्साराम के कमरे की ओर जाते ही उनका हृदय टूक-टूक हो जाता था! जहाँ उनकी आशागों का दीपक जलता रहता था,वहाँ अब अन्धकार छाया हुआ था! उनके दो पुत्र अब भी थे;लेकिन जब दूध देती हुई गाय मर गई,तो बछिया का क्या भरोसा? जव फलने-फूलने वाला वृक्ष गिर पड़ा, तो नन्हे-नन्हे पौधों से क्या आशा? यों तो जवान-बूढ़े सभी मरते हैं, लेकिन दुख इस बात का था कि उन्होंने स्वयं लड़के की जान ली। जिस दम यह बात याद आ जाती,तो ऐसा मालूम होता था कि उनकी छाती फट जायगी-मानो हृदय बाहर निकल पड़ेगा!

निर्मला को पति से सच्ची सहानुभूति थी। जहाँ तक हो सकता था,वह उनको प्रसन्न रखने की फिक्र रखती थी;और भूल कर भी पिछली बातें ज़बान पर न लाती थी। मुन्शी जी उससे मन्साराम की कोई चर्चा करते शरमाते थे। उनकी कभी-कभी ऐसी इच्छा होती कि एक बार निर्मला से अपने मन के सारे भाव खोल कर कह दूं;लेकिन लज्जा जबान रोक लेती थी। इस भाँति उन्हें वह सान्त्वना भी न मिलती थी,जो अपनी व्यथा कह डालने से-दूसरों को अपने ग़म में शरीक कर लेने से-प्राप्त होती है। मवाद बाहर न निकल कर अन्दर ही अन्दर अपना विष फैलाता' जाता था-दिन-दिन देह घुलती जाती थी!

'इधर कुछ दिनों से मुन्शी जी और उन डॉक्टर साहब में