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दूसरा परिच्छेद
 


उदयभानु--तो आखिर तुम मुझे क्या करने कहती हो?

कल्याणी--कह तो रही हूँ, पक्का इरादा कर लो कि पाँच हजार से अधिक न खर्च करेंगे। घर में तो टका है नहीं; कर्ज ही का भरोसा ठहरा, तो इतना क़र्ज क्यों ले लो कि जिन्दगी में अदा न हो। आखिर मेरे और बच्चे भी तो हैं, उनके लिए भी तो कुछ चाहिए।

उदयभानु--तो क्या आज मैं मरा जाता हूँ?

कल्याणी--जीने-मरने का हाल कोई नहीं जानता।

उदयभानु--तो तुम बैठी यही मनाया करती हो?

कल्याणी--इसमें बिगड़ने की तो कोई बात नहीं है। मरना एक दिन सभी को है। कोई यहाँ अमर होकर थोड़े ही आया है। आँखें बन्द कर लेने से तो होने वाली बात न टलेगी। रोज ऑखों देखती हूँ, बाप का देहान्त हो जाता है, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खाते फिरते हैं। आदमी ऐसा काम ही क्यों करे?

उदयभानु ने जल कर कहा-- तो अब समझ लूँ कि मेरे मरने के दिन निकट आ गए, यह तुम्हारी भविष्यवाणी है। सुहाग से स्त्रियों का जी ऊवते नहीं सुना था, आज यह नई बात मालूम हुई! रँडापे में भी कोई सुख होगा ही!!

कल्याणी--तुम से दुनिया की भी कोई बात कही जाती है, तो जहर उगलने लगते हो। इसीलिए न कि जानते हो इसे कहीं ठिकाना नहीं है--मेरी ही रोटियों पर पड़ी हुई है; या और