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निर्मलता
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रिहा था। उसकी दृष्टि उन्मुक्त आकाश की ओर लगी हुई थी, मानो किसी देवता की प्रतीक्षा कर रहा हो। वह कहाँ है, किस दशा में है,इसका उसे कुछ ज्ञान न था!

सहसा निर्मला को देखते ही वह चौंक कर उठ बैठा। उसकी समाधि टूट गई। उसकी विलुप्त चेतन प्रदीप्त हो गई। उसे अपनी स्थिति का-अपनी दशा का ज्ञान हो गया,मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो। उसने आँखें फाड़ कर निर्मला को देखा और मुँह फेर लिया।

एकाएक मुन्शी जी तीव्र स्वर में बोले-तुम यहाँ क्या करने आई? निर्मला अवाक् रह गई। वह बतलाए कि क्या करने आई! इतने सीधे से प्रश्न का भी वह क्या कोई जवाब न दे सकी! वह क्या करने आई? इतना जटिल प्रश्न किसके सामने आया होगा? घर का आदमी बीमार है,उसे देखने आई है,यह बात क्या बिना पूछे मालूम न हो सकती थी? फिर यह प्रश्न क्यों?

वह हत्बुद्धि सी खड़ी रही,मानो संज्ञाहीन हो गई हो! उसने दोनो लड़कों से मुन्शी जी के शोक और सन्तोस की बातें सुन कर यह अनुमान किया था कि अब उनका दिल साफ हो गया है। अब उसे ज्ञात हुआ कि वह भ्रम था। हाँ, वह महा भ्रम था। अगर वह जानती कि आँसुओं की वृष्टि ने भी सन्देह की अग्नि शान्त नहीं की, तो वह यहाँ कदापि न आती। वह कुढ़कुढ़ कर मर जाती; पर घर से बाहर पाँव न निकालती!!

मुन्शी जी ने फिर वही प्रश्न किया-तुम यहाँ क्यों आई?