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निर्मला
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निश्चय कर लिया। अगर उसके रक्त से मन्साराम के प्राण बच जायँ,तो वह बड़ी खुशी से उसकी अन्तिम बूंद तक दे डालेगी। अब जिसका जो जी चाहे समझे,वह कुछ पर्वाह न करेगी। उसने जियाराम से कहा-तुम लपक कर एक एक्का बुला लो,मैं अस्पताल जाऊँगी।

जियाराम-वहाँ तो इस वक्त बहुत से आदमी होंगे। जरा रात हो जाने दीजिए!

निर्मला-नहीं,तुम अभी एक्का बुला लो!

जियाराम-कहीं बाबू जी बिगड़ें न!

निर्मला-बिगड़ने दो!तुम अभी जाकर सवारी लाओ।

जियाराम-मैं कह दूंगा,अम्माँ जी ही ने मुझसे सवारी मँगवाई थी।

निर्मला-कह देना!

जियाराम तो उधर ताँगा लाने गया,इधर इतनी देर में निर्मला ने सिर में कची की,जूड़ा बाँधा,कपड़े बदले,आभूषण पहने,पान खाया और द्वार पर आकर ताँगे की राह देखने लगी।

रुक्मिणी अपने कमरे में बैठी हुई थी। उसे इस तैयारी से आते देख कर बोली-कहाँ जाती हो बहू?

निर्मला-जरा अस्पताल तक जाती हूँ।

रुविमणी-वहाँ जाकर क्या करोगी?

निर्मला कुछ नहीं,करूँगी क्या? करने वाले तो भगवान हैं। देखने को जी चाहता है।