यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
१५२
 

थी कि जाकर अस्पताल के डॉक्टर को एक हजार की थैली देकर कहें-इन्हें बचा दीजिए,यह थैली आपकी भेंट है;पर उसके पास न तो इतने रुपये ही थे,न इतना साहस ही था। अब भी यदि वह वहाँ पहुँच सकती,तो मन्साराम अच्छा हो जाता। उसकी जैसी सेवा-सुश्रूषा होनी चाहिए,वैसी नहीं हो रही है,नहीं तो क्या तीन दिन तक ज्वर ही न उतरता? यह दैहिक ज्वर नहीं, मानसिक ज्वर है और चित्त के शान्त होने ही से इसका प्रकोप शान्त हो सकता है। अगर वह वहाँ रात भर भी बैठी रह सकती;और मुन्शी जी जरा भी मन मैला न करते,तो कदाचित् मन्साराम को विश्वास हो जाता कि पिता जी का दिल साफ है; और फिर उसके अच्छे होने में देर न लगती; लेकिन ऐसा होगा? मुन्शी जी उसे वहाँ देख कर प्रसन्नचित्त रह सकेंगे? क्या अब भी उनका दिल साफ नहीं हुआ? यहाँ से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था। कि वह अपने प्रमाद पर पछता रहे हैं। ऐसा तो न होगा कि उसके वहाँ जाते ही मुन्शी जी का सन्देह फिर भड़क उठे और वह बेटे की जान लेकर ही छोड़े!

इसी दुविधा में पड़े-पड़े तीन दिन गुज़र गए;और न घर में चूल्हा जला,न किसी ने कुछ खाया। लड़कों के लिये बाजार से पूरियाँ मँगा ली जाती थीं। रुक्मिणी और निर्मला भूखी ही.सो जाती थीं। उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती थी।

चौथे दिन जियाराम स्कूल से लौटा, तो अस्पताल होता हुआ घर आया। निर्मला ने पूछा-क्यों भैया,अस्पताल