उदयभानु--क्या करूँ, जग-हँसाई भी तो अच्छी नहीं लगती। कोई शिकायत हुई, तो लोग कहेंगे नाम बड़े, दर्शन थोड़े। फिर जब वह मुझसे दहेज एक पाई नहीं लेते, तो मेरा भी तो यह कर्त्तव्य है कि मेहमानों के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रक्खूँ!
कल्याणी--जब से ब्रह्मा ने सृष्टि रची, तब से आज तक कभी बारातियों को कोई प्रसन्न नहीं कर सका। उन्हें दोष निकालने और निन्दा करने का कोई न कोई अवसर मिल ही जाता है। जिसे अपने घर सूखी रोटियाँ भी मुयस्सर नहीं, वह भी बारात में जाकर नानाशाह बन बैठता है। तेल खुशबूदार नहीं, साबुन टके सेर का जाने कहाँ से बटोर लाए, कहार बात नहीं सुनते, लालटेनें धुआँ देती हैं, कुर्सियों में खटमल हैं,चारपाइयाँ ढीली हैं, जनवासे की जगह हवादार नहीं; ऐसी-ऐसी हजारों शिकायतें होती रहती हैं। उन्हें आप कहाँ तक रोकिएगा? अगर यह मौका न मिला, तो और कोई ऐब निकाल लिए जायँगे। भई, यह तेल तो रण्डियों के लगाने लायक है, हमें तो सादा तेल चाहिए; जनाब यह साबुन नहीं भेजा है, अपनी अमीरी की शान दिखाई है; मानो हमने साबुन देखा ही नहीं। ये कहार नहीं, यमदूत हैं; जब देखिए सिर पर सवार; लालटेनें ऐसी भेजी हैं कि आँखें चमकने लगती हैं। अगर दस-पाँच दिन इस रोशनी में बैठना पड़े, तो आँखें फूट जायँ। जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ़ से झोंके आते रहते हैं। मैं तो फिर यही कहूँगी कि बारातियों के नखरों का विचार ही छोड़ दो।