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निर्मला
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मुन्शी जी -- बहिन, उसे घर से निकाला किसने है? मैंने तो केवल उसकी पढ़ाई के ख्याल से उसे वहाँ भेजा था।

रुक्मिणी -- तुमने चाहे जिस ख्याल से भेजा हो; लेकिन यह बात उसे लग गई है। मैं तो अब किसी गिनती में नहीं हूँ, मुझे किसी बात में बोलने का कोई अधिकार नहीं! मालिक तुम, मालिकिन तुम्हारी स्त्री!! मैं तो केवल तुम्हारी रोटियों पर पड़ी हुई अभागिनी विधवा हूँ! मेरी कौन सुनेगा और कौन पर्वाह करेगा? लेकिन बिना बोले रहा नहीं जाता! मन्सा तभी अच्छा होगा, जब घर आवेगा -- जब तुम्हारा हृदय वही हो जायगा, जो पहले था।

यह कह कर रुक्मिणी वहाँ से चली गई। उनकी ज्योति-हीन पर अनुभवपूर्ण आँखों के सामने जो चरित्र हो रहे थे, उनका रहस्य वह खूब समझती थी; और उनका सारा क्रोध निरपराधिनी निर्मला ही पर उतरता था। इस समय भी वह यह कहते-कहते रुक गई कि जब तक यह लक्ष्मी इस घर में रहेंगी, इस घर की दशा बिगड़ती ही जायगी; पर उसके प्रकट रूप से न कहने पर भी उसका आशय मुन्शी जी से छिपा नहीं रहा। उनके चले जाने पर मुन्शी जी ने सिर झुका लिया और सोचने लगे। उन्हें अपने ऊपर इस समय इतना क्रोध आ रहा था कि दीवार से सिर पटक कर प्राणों का अन्त कर दें। उन्होंने क्यों विवाह किया था? विवाह करने की क्या ज़रूरत थी, ईश्वर ने उन्हें एक नहीं, तीन-तीन पुत्र दिए थे। उनकी अवस्था भी ५० के लगभग पहुँच गई थी, फिर उन्होंने क्यों विवाह किया? क्या इसी बहाने ईश्वर को उनका