यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३७
दसवाँ परिच्छेद
 

मुन्शी--जी यहाँ तो रह नहीं सकते,नियम ही ऐसा है।

मन्साराम--कुछ भी हो,मैं वहाँ न जाऊँगा। मुझे और कहीं ले चलिए-किसी पेड़ के नीचे,किसी झोपड़े में,जहाँ चाहे रखिए;पर घर न ले चलिए।

अध्यक्ष ने मुन्शी जी से कहा-आप इन बातों का ख्याल न करें, यह तो होश में नहीं हैं।

मन्साराम-कौन होश में नहीं है? मैं होश में नहीं हूँ? किसी को गालियाँ देता हूँ,दाँत काटता हूँ? क्यों होश में नहीं हूँ? मुझे यहीं पड़ा रहने दीजिए,जो कुछ होना होगा यहीं होगा,अगर ऐसा ही है तो मुझे अस्पताल ले चलिए। मैं वहाँ पड़ा रहूँगा। जीना होगा जिऊँगा,मरना होगा मरूँगा;लेकिन घर किसी तरह भी न जाऊँगा।

यह जोर पाकर मुन्शी जी फिर अध्यक्ष से मिन्नतें करने लगे; लेकिन वह कायदे का पावन्द आदमी कुछ सुनता ही न था। अगर छूत की बीमारी हुई और किसी दूसरे लड़के को छूत लग गई, तो कौन उसका जबावदेह होगा? इस तर्क के सामने मुन्शीजी की कानूनी दलीलें भी मात हो गई।

आखिर मुन्शी जी ने मन्साराम से कहा-वेटा, तुम्हें घर चलने से क्यों इन्कार हो रहा है? वहाँ तो सभी तरह का आराम रहेगा। मुन्शी जी ने कहने को तो यह बात कह दी;लेकिन डर रहे थे कि कहीं सचमुच मन्साराम चलने पर राजी न हो जाय । वह मन्साराम को अस्पताल में रखने का कोई वहाना खोज रहे थे; और