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दूसरा परिच्छेद
 


तश्तरियाँ, थाल, लोटे, गिलास! जो लोग नित्य खाट पर पड़ हुक्का पीते रहते थे, बड़ी तत्परता से काम में लगे हुए हैं। अपनी उपयोगिता को सिद्ध करने का ऐसा अच्छा अवसर उन्हें फिर बहुत दिनो के वाद मिलेगा। जहाँ एक आदमी को जाना होता है, पाँच दौड़ते हैं। काम कम होता है, हुल्लड़ अधिक। जरा-जरा सी बात पर घण्टों तर्क-वितर्क होता है; और अन्त में वकील साहब को आकर निश्चय करना पड़ता है। एक कहता है, यह घी खराब है। दूसरा कहता है, इससे अच्छा बाजार में मिल जाय, तो टाँग की राह निकल जाऊँ। तीसरा कहता है, इसमें तो हीक आती है। चौथा कहता है, तुम्हारी नाक ही सड़ गई है, तुम क्या जानो घी किसे कहते हैं। जव से यहाँ आए हो, घी मिलने लगा है; नहीं तो घी के दर्शन भी न होते थे। इस पर तकरार बढ़ जाती है; और वकील साहब को झगड़ा चुकाना पड़ता है।

रात के नौ बजे थे। उदयभानुलाल अन्दर बैठे हुए खर्च का तखमीना लगा रहे थे। वह प्रायः रोज ही तखमीना लगाते थे; पर रोज़ ही उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन और परिवर्द्धन करना पड़ता था। सामने कल्याणी भौहैं सिकोड़े हुए खड़ी थी। बाबू साहव ने बड़ी देर के बाद सिर उठाया; और बोले--दस हजार से कम नहीं होता, बल्कि शायद और बढ़ जाय।

कल्याणी--दस दिन में पाँच हजार से दस हजार हुए। एक महीने में तो शायद एक लाख की नौबत आ जाय!