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निर्मला
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कई लड़के थियेटर देखने जा रहे थे, निरीक्षक से आज्ञा ले ली थी। मन्साराम भी उनके साथ थियेटर देखने चला गया । ऐसा खुश था, मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है। थियेटर में नकल देख कर तो वह हँसते-हँसते लोट गया । बारबार तालियाँ बजाने और 'वंसमोर !' की हाँक लगाने में सबसे पहला नम्बर उसी का था । गाना सुन कर वह मस्त हो जाता था, और 'ओहो हो !' करके चिल्ला उठता था। दर्शकों की निगाहें बार-बार. उसकी तरफ उठ जाती थीं। थियेटर के पात्र भी उसी की ओर ताकते थे; और यह जानने को उत्सुक थे कि कौन महाशय इतने रसिक और भावुक हैं। उसके मित्रों को उसकी उच्छङ्खलता पर आश्चर्य हो रहा था। वह बहुत ही शान्तचित्त, गम्भीर स्वभाव का युवक था। आज वह क्यों इतना हास्यशील हो गया है, क्यों उसके विनोद का वारापार नहीं है ?

दो बजे रात को थियेटर से लौटने पर भी उसका हास्योन्माद कम नहीं हुआ। उसने एक लड़के की चारपाई उलट दी, कई लड़कों के कमरों के द्वार बाहर से बन्द कर दिए; और उन्हें भीतर से खटखट करते सुन कर हँसता रहा। यहाँ तक कि छात्रालय के अध्यक्ष महोदय की नींद भी शोर-गुल सुन कर खुल गई; और उन्होंने मन्साराम की शरारत पर खेद प्रकट किया । कौन जानता है कि उसके अन्तस्तल में कितनी भीषण क्रान्ति हो रही है ? सन्देह के निर्दय आघात ने उसकी. लज्जा और आत्मसम्मान को कुचल डाला है ! उसे अपमान और तिरस्कार का लेश