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दसवाॅ परिच्छेद
 

जीवन निराधार मालूम होता था। इस एक उच्छवास में कितना नैराश्य, कितनी समवेदना, कितनी करुणा, कितनी दीनता-प्रार्थना भरी हुई थी,इसका कौन अनुमान कर सकता है? अब सारा रहस्य उसकी समझ में आ रहा था; और बार-बार उसका पीड़ित हृदय आर्तनाद कर रहा था-हाय ईश्वर! इतना घोर कलङ्क!!

क्या जीवन में इससे बड़ी विपत्ति की कल्पना की जा सकती है? क्या संसार में इससे घोरतर नीचता की कल्पना हो सकती है? आज तक किसी पिता ने अपने पुत्र पर इतना निर्दय कलङ्कन लगाया होगा! जिसके चरित्र की सभी प्रशंसा करते थे,जो अन्य युवकों के लिए आदर्श समझा जाता था, जिसने कभी अपवित्र विचारों को अपने पास नहीं फटकने दिया, उसी पर यह घोरतम कलङ्क! मन्साराम को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका दिल फटा जाता है!

दूसरी घण्टी भी वज गई। लड़के अपने-अपने कमरों में गए; पर मन्साराम हथेली पर हाथ रक्खे अनिमेष नेत्रों से भूमि की ओर देख रहा था,मानो उसका सर्वस्व जल-मग्न हो गया हो; मानो वह किसी को मुँह न दिखा सकता हो। स्कूल में गैर-हाजिरी हो जायगी, जुर्माना हो जायगा, इसकी उसे चिन्ता नहीं! जब उसका सर्वस्व लुट गया, तो अब इन छोटी-छोटी बातों का क्या भय? इतना बड़ा कलङ्क लगने पर भी अगर जीता रहूँ, तो मेरे जीने को धिक्कार है!

उसी शोकातिरेक की दशा में वह चिल्ला पड़ा-माता जी,