यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
१०८
 

जिनके नेत्रों में एक क्षण पहले विनय के आँसू भरे हुए थे, उनमें से अकस्मात् ईर्ष्या की ज्याला कहाँ से आ गई! जिन अघरों से एक क्षण पहले सुधा-वृष्टि हो रही थी,उनमें विष का प्रवाह क्यों होने लगा। उसी अर्द्ध-चेतना की दशा में बोला-मुझे भूख नहीं है।

मुन्शी जी ने घुड़क कर कहा-क्यों भूख नहीं है? भूख नहीं थी, तो शाम को क्यों न कहला दिया। तुम्हारी भूख के इन्तजार में कौन सारी रात वैठा रहे? तुम से पहले तो यह आदत न थी। रूठना कब से सीख लिया? जाकर खा लो।

मन्सारामजी नहीं,मुझे जरा भी भूख नहीं है।

तोताराम ने दाँत पोस कर कहा-अच्छी बात है,जब भूख लगे, तब खाना! यह कहते हुए वह अन्दर चले गए। निर्मला भी उनके पीछे ही पीछे चली गई। मुन्शी जी तो लेटने चले गए, उसने जाकर रसोई उठा दी;और कुल्ला कर पान खा मुस्कराती हुई आ पहुँची। मुन्शी जी ने पूछा-खाना खा लिया न?

निर्मला-क्या करती। किसी के लिए अन्न-जल छोड़ दूंगी?

मुन्शी जी-इसे न जाने क्या हो गया है,कुछ समझ ही में नहीं पाता। दिन-दिन घुलता चला जाता है। दिन भर उसी कमरे में पड़ा रहता है।

निर्मला कुछ न बोली। वह चिन्ता के अपार सागर में डुबकियाँ खा रही थी। मन्साराम ने मेरे भाव-परिवर्तन को देख कर