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निर्मला
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निर्मला-शाम को भी तो कुछ नहीं खाया था. भूक क्यों नहीं लगी ?

मन्साराम ने व्यङ्ग की हँसी हँस कर कहा-बहुत भूक लगेगी तो आएगा कहाँ से?

यह कहते-कहते सन्साराम ने कमरे का द्वार वन्द करना चाहा; लेकिन निर्मला किवाड़ों को हटा कर कमरे में चली आईऔर मन्साराम का हाथ पकड़ कर सजल नेत्रों से विनय-मधुर स्वर में बोली-मेरे कहने ले चल कर थोड़ा सा खा लो। तुम न खानोगे,तो मैं भी जाकर सो रहूँगी। दो ही कौर खा लेना। क्या मुझे रात भर भूखों मारना चाहते हो?

मन्साराम सोच में पड़ गया। अभी तक इसने भी भोजन नहीं किया, मेरे ही इन्तजार में बैठी रही। यह स्नेह, वात्सल्य और विनय की देवी है या ईर्षा और अमङ्गल की मायाविनी मूर्ति! उसे अपनी माता का स्मरण हो आया। जब वह रूठ जाता था, तो वे भी इसी तरह मनाने आया करती थीं और जब तक वह न जाता था,वहाँ से न उठती थीं। वह इस विनय को अस्वीकार न कर सका। बोला-मेरे लिए आप को इतना कष्ट हुआ,इसका मुझे खेद है। मैं जानता हूँ कि आप मेरे इन्तजार में भूखी बैठी हैं, तो कभी खा आया होता।

निर्मला ने तिरस्कार-भाव से कहा-यह तुम कैसे समझ सकते थे कि तुम भूखे रहोगे;और मैं खाकर सो रहूँगी? क्या विमाता का नाता होने ही से मैं ऐसा स्वार्थिन हो जाऊँगी?