निर्मला | ९८ |
छबि देख कर खुश होता-अपने भाग्य को सराहता। यहाँ बुड्डा आदमी तुम्हारे रङ्ग-रूप, हाव-भाव पर क्या लट्टू होगा? उसने इन्हीं बालकों की सेवा करने के लिए, तुससे विवाह किया है, भोग-विलास के लिए नहीं! वह बड़ी देर तक घाव पर नमक छिड़कती रहीं; पर निर्मला ने चूं तक न की, वह अपनी सफाई पेश तो करना चाहती थी; पर कर न सकती थी। अगर यह कहे कि मैं वही कर रही हूँ जो मेरे स्वामी की इच्छा है, तो घर का भण्डा फूटता है। अगर अपनी भूल स्वीकार करके उसका सुधार करती है, तो भय है कि उसका न जाने क्या परिणाम हो । वह यो बड़ी स्पष्टवादिनी थी, सत्य कहने में उसे सङ्कोच या भय न होता था, लेकिन इस नाजुक मौके पर उसे चुप्पी साधनी पड़ी। इसके सिवा दूसरा उपाय न था। वह देखती थी कि मन्साराम बहुत विरक्त और उदास रहता है, यह भी देखती थी कि वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है; लेकिन उसकी वाणी और कर्म दोनों ही पर मुहर लगी हुई थी। चोर के घर में चोरी हो जाने से उसकी जो दशा हो जाती है, वही दशा इस समय निर्मला की हो रही थी!