पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/९९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६६ )

आपने तो छपीसाक्षरी मंत्र पढफर धुरुटाग्नि में सभी कुछ स्वाहा कर रपमा हे।

यद्यपि गृहेश्वरी के यजन-भजन का उद्देश्य प्राय ही के मगलार्थ होता है, पर आप तो मन और वचन से इस देश ही क न ठहरे। फिर यहावाला के प्रातरिक भान कैसे समझे ? बन्दर की ओर घरफी लेकर हाथ उठायो तो भी वह देला ही समझ कर पी, खी, करता हुआ भागेगा । विचारी सीधी सादी अवता याला ने न कभी विधर्मी शिक्षा पाई हे, न मुह सोलके कभी मरते २ भी अपने पराए लोगों में नाना भाति की जटल फहने सुनने का साहस रखती हैं । फिर वावू साय को फैसे लेक्चरबाजी करके समझा दें कि नोता मेना तफ मनुष्य की योली सीपके मनुष्य नहीं हो जाते, फिर आपही राजभाषा सीस कर फैमे गजजातीय हो जायगे? देह फाग तो बदल ही नहीं सकत, चार सय घात क्यों कर बदल लीजिण्गा ? हा, दूसरे की चाल चलकर छतकार्य तो कोई टुचा नहीं, अपनी हसी कराना होता है वही फरा लीजिए।

अब यहां पर विचारने का स्थल है कि जहा दो मनुष्य न्यारे २ स्वभाव के हो, और एक की यातें दूसरे को घृणित जात पडनी हो यहा चित्त की प्रसन्नता किस प्रकार हो सकती है । स्त्रीचाहे धर्म के अनुरोध से इनकी फुचाल का सहन भी कर ले, पर लोक लज्जा के भय से गले में हाथ डाबके सरतो कभी न करेंगी, और ऐमा न हुआ तो इनका जन्म सफल होना असभव हे 'इससे मन ही मन कुढने वा पात २ परखौ गियाने के मिवा कुछ धन नहीं पडता, फिर कैसे कहिए कि माप अपने घर में स्वतंत्र है!