विहार आदि नापसंद ठहरे। इससे और भी तन्दुरुस्ती में नेवर का शाप लगा रहता है। इस पर भी जो कोई रोग उमड आया तौ चौगुने दाम लगाके, अठगुना समय गधाके विदेशी दी औषधि का व्यवहार करेंगे, जिसका फल प्रत्यक्ष रूप से चाहे अच्छा भी दिखाई दे, पर वास्तव में धन और धर्म ही नहीं, घरच देशीय रहन सहन के वियच होने से स्वास्थ्य को भी ठीक नहीं रखता, जन्म रोगीपने की कोई न कोई डिग्री अवश्य प्राप्त करा देता है।
यदि सो जैटिलमैन इकट्ठे हो तो कदाचित् ऐसे वस न निकलेंगे जो सचमुच किसी राजरोग की कुछ न कुछ शिकायत न रखते हो। इस दशा में हम कह सकते हैं कि आप रूप का शरीर तो स्वतत्र नहीं है, डाकर साइव हाथ का खितौना है। यदि भूख से अधिक डयल रोटी का चौथाई भाग भी खा ले वा ब्राडी देवी का चरणोदक आधा आउस भी पी लें तो मरना जीना ईश्वर के आधीन है, पर कुछ दिन वा घंटों के लिए जमपुरी के फाटक तक अवश्य हो आवेगे, और चहा कुछ भेंट चढाए और 'हा हा, 'का गीत गाए बिना न लौटेंगे। फिर कौन कह सकता है पि मिस्टर विदेशदास अपने शरीर से स्वतत्र हैं ? '
मोर सुनिए, अब वद दिन तो रहे ही नहीं कि देश क धन देश ही में रहता हो, और प्रत्येक व्यवसायीको निधय ई कि जिस पर्प धधा चल गया उसी पर्प, घा जिस दिन खाम प्रसार हो गया उसी दिन, सब दुख-दरिद्र 'टल जायगे। तो वह समय नगा है कि तीन साओ तेरह की भूप सभी बनी रहती है। रोजगारन्यवहार के द्वारा साकारण रीति