पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/९१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६१ )

परम धन्य है ऐसे पुरुष-रत्नों के पवित्र जीवन को जो मागरी-देवी के इतने बढ़े चढ़े मक है, और प्रेम के इतने तरवा हैं कि एक एक लेख पर इतना शीघ्र प्रेम जाल में फस जाते हैं। धन्य प्रेम

यद्यपि हमें अपनी योर से कुछ भी आशा नहीं है, पर हम प्रेमी है, इससे पढ़ विश्वास रखते हैं कि महानुभाष राष माइप की मेमेच्छा-देवी के फेवल पाशीर्वाद से 'बामण' के चिरायु होने की कोई सूरत निकल आना भाश्चर्य की बात नहीं है।

पाच या पचास के लिए हाथ फैलाते हमें लज्जा आती पर ऐसे प्रेम से कोई एक कौडी भी दे तो हम क्या है, शायद परमेश्वर भी हाथ पसारके लेंगे। दूसरा पांच हज़ार भी दे तो हम भाजकल की सी दशा में ले तो लेते, पर इस भाष से कमी न लेते, पयोंकि हम प्रेम-भिक्षुक है।

"ब्राह्मण को बन्द करने में परमेश्वर साक्षी है कि हमें पुत्रशोफ से कम शोक न होगा, पर हत्यारे नादिहन्दों ने हमें लाचार कर दिया है। इसकासविस्तर हाल "ब्रह्मघाती" नामक पुस्तिका में लिख रहे है, पर दो महीने बाद छपावेंगे। ममी इससे नहीं छपा सकते कि शायद पीछे से दो चार नाम काटने पडें । "प्राक्षब" को जिस तरह भाजतक चलाया है, हमी जानते हैं।

सहदयों और प्रेमियों का प्राय-व्यय तो सदा ही बराबर हो जाता है। रुपया जोरने के लिए चाहिये-धर्म, फर्म, बजा, प्रतिष्ठा, प्रामोद, प्रमोद, शील, संकोच सर मासे पर रख दिये जाय, सो प्रेम सिवान्ती से दो महीं सकता।