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मास्टर नन्हेमल "सुपदावलम्बित"(१)। "सुखदावलम्बित" जी अभी विद्यमान है।

प्रतापनारायण के लेखों में मनोरञ्जकता की मात्रा खूब होती थी। हास्य रस के लाने का जहा पर जरा भी मौका होता था वहां चे उसे हाथ से न जाने देते थे। कभी कभी उर्दू की तरह की अनुभासपूर्ण बनावटी इवारत भी आप लिखते थे । इनकी कविताबहुत अच्छी होती थी । कभी कभी ये "ब्राह्मण" की कीमत तक, दानग्राही ब्राह्मण की तरह, कविता में मॉगते थे। देखिए-

( १ )
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चार महीने होचुके 'ब्राह्मण" की सुधि लेव । गगामाई जे कर, हमें दक्षिणा देव ॥१॥ जो दिन मांगे दीजिये दुहु दिश होय अनन्द । तुम निचिंत हो हम कर, मागन की सोगद ॥२॥ सदुपदेश नितही करें,* मागें भोजन पात्र । देसहु हम सम दूमरा, कहा दान कर पात्र ॥ ३ ॥ तुर्त दान जो करिय तो, होय महाकल्यान । 'बहुत बफाये लाभ क्या ? समुझ पाव जजमान ॥ ४ ॥ रूप राज की कगर पर, जितने होय निशान । तिते वर्ष सुप सुजस जुत जियत रहो जजमान ॥५॥ {' .* "क", "हमें प्रयोग याट, रसिये । -