पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/८८

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किसी की झूठी प्रशसा करके कुछ ऐठा चाहे, पर हम कृता भी मही हैं जो अपने हितैपियों को धन्यवाद न दें! इन पत्रों से लोग समझ सकते हैं फि साहदय, प्रेमी, उदार और सछे सन्चन "घामण" को कैसा समझते हैं-

"स्वस्तिश्री कविकुल गौरव, भाषाचार्य, प्रतिभारतेन्दु, रसिकमडलीमंडन श्री प्रतापनारायण मिश्र समीपेषु निवेदन मिदम्-हे प्रेमदेव भक्तशिरोमणे।

"आहा हा ! आनन्द ! आनन्द !! आनन्द !!! सहदयों ने काव्यानन्द को "परमानन्द सहोदर" कहा है, सो सत्य है ! धन्य आज का दिन ! धन्य श्राज की घडी ! कि जिसमे "ब्राह्मण" की बगी (पारसल) आन पहुंची । खालके देखते ही उसके चतुर्थ खंड की द्वितीय सख्या हाथ लगी। प्रथम पृष्ठ ही पर “द" देखकर पढना आरम किया ! क्या कट, उसकी लिखावट को ? कुछ कहते धनता ही नहीं ऐसी अनूठी हिन्दी पद्मिनी मैंने-अर्थात् महाराष्ट्ररूपी हफ: सान बासी हतभागी ने कि जो सदा सर्वदा काली कलूटी, कुरूपा हिन्दुस्तानी, जो न हिन्दी न मुसलमानी, मुंह में खाने की निशानी देखता भालता और बोलता है-फाहे को कभी देखी थी!

"महाशय आपको तो "द की दास्तान दु'सह जान पडी, पर मुझको तो उसने ऐसे रूप, रग, राव, चाव, हाव, भाष मधुपान करते २ छक गया। यहां तो ऐसी उलटी गति चल निकली कि"या कांटे मोपाय गडि लीन्हीं मरत जिआय"। "द" की जादुमरी दास्तान दूर होते ही 'उर्दू धीवी की पूजी' देख पड़ी। उस सडी देसवा के अन्दर की भीतरी पोल