हैं।कि मुसलमानों के सहवास का फल है, पर यह उनकी समझ ठीक नहीं है, मुसलमान भाइयों के लडके कहते हैं. शया, और हिन्दू सन्तान के पक्ष में 'बफार' का उधारण तनिक भी कठिन नहीं होता, यह अंगरेजों की तकार और फारस वालों की,टकार नहीं है कि मुही से न निकले, और सदा मोती का मोटी अर्थात् स्थूलागा स्त्री मोर खप्त की टट्टी का तत्तो अर्धात् गरम ही हो जाय। फिर अब्धा को अप्पा प्रादना किस निग्रम से होगा ! हा, आत से आप और अप्पा तथा आपा की सृष्टि हुई है, उसी को नरव वालों ने अव्या में रूपातरित कर लिया होगा, क्योंफि उनकी घर्णमाला में "पकार" (पे) नहीं होती। सौ विस्वा पप्पा, बाप, बापू, यच्या, यावा, यावू आदि भी इसी से निकले है, क्योंकि जैसे एशिया भी कई धोलियों में 'पकार को 'वकार' घ 'फकाए से वरल लेते हैं, जैसे पादशाह-बादशाह और पारसी- फारसी आदि, वैसे ही कई भाषाओं में शब्द के आदि में 'वकार' भी मिला देते हैं, जैसे बके शव-धवके शव तथा तगामद-पतगामद इत्यादि, और शब्द के आदि की इस प्रकार का लोप भी हो जाता है जैसे अमावस का मावस, (सतसई आदि ग्रयों में देखो) इस अकारात शब्दों में अकार के बदले इस वा दीर्घ उकार भी हो जाती है, जैसे एक-एकु, स्वाद-स्वादु आदि । अथच इस्व को दीर्य, दीर्घ को हस्वभ अ, इ, उ, आदि की वृद्धि वा लोप भी हुषा ही करता है, फिर हम क्यों न कहें कि जिन शब्दों में प्रकार और पकार का सपर्क हो, एघ अर्थ से श्रेष्ठता को ध्वनि निकलती हो यह प्राय समस्त संसार के शब्द हमारे आप्त महाशय वा आप के उलट फेर से बने हैं।
पृष्ठ:निबन्ध-नवनीत.djvu/४५
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ७ )