भिनभिनाहट पाई जाती है। पर वह इस बात को में
माने, हमने दो चार वार समझाया, पर वह 'आप' थे क्यों
मानने लगे ? इम पर हमें झुंझलाहट छूटी तो एक दिन उनके
आते ही और 'आप' का शब्द मुह पर लाते ही हमने कह दिया
कि आपकी ऐसी तैसी? यह क्या यात हे कि तुम मित्र यन
कर हमारा कहना नहीं मानते ? प्यार के साथ तू कहने में
जितना स्वादु आता है उतना वनावट से आप सांप कहो तो
कभी सपने में नहीं आने का । इस उपदेश को यह मान गये।
सच तो यह है कि प्रेम-शास्त्र में, कोई यधन न होने पर भी, इस
शब्द का प्रयोग बहुत ही कम, बरच नहीं के बराबर होता है।
हिन्दी की कविता में हमने दो ही कवित्त इससे युक्त पाए है, एक तो 'आपको न चाहै ताके याप को न चाहिये, पर यह न तो किसी प्रतिष्ठित ग्रन्थ का है, और न इसका आशय स्नेह सम्बद्ध है। किसी जले भुने कवि ने कह मारा हो तो यह कोई नहीं कह सकता कि कविता में भी "आप" की पूछ है। दूसरी घनानन्दजी को यह सवैया है-"आपही तो मन हेरि हरयो तिरछे करि नैनन नेह के चाव में" इत्यादि । पर यह भी निराशापूर्ण उपालम्भ है, इससे हमारा यह कथन कोई खडन नही कर सकता कि प्रेम-समाज में "आप" का आदर नहीं है, तू ही प्यारा है।
सस्कृत और फारसी के कवि भी त्व और तृ के आगे भधान् और शुमा ( तू का बहुवचन) का बहुत आदर नहीं करते । पर इससे आपको क्या मतलय ? आप अपनी हिन्दी के 'आप' का पता लगाइये, और न लगै तो हमें यतला देंगे। सस्कृत में एक प्राप्त शब्द है, जो सर्वथा माननीय हो अर्थ में आया है, यहा तक कि न्यायशास्त्र में प्रमाण चतुष्टय (प्रत्यक्ष,