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(३२)

रग रचै रस राग अलापि
नचै परताप गरे भुज डारी।
ताछिन छावै अजीब मजा
वजनी घुघुरू रजनी उजियारी ॥३॥
(देह धरे को यहै फल भाई)
नैनन में बसै सावरो रूप
रहे मुख नाम सदा सुखदाई।
त्यों ध्रुति में ब्रज केलिकथा
परिपूरण प्रेम प्रताप बडाई।
कोऊ कछू कहै होय कहूँ कछु
पै जिय में परवाहि न लाई।
नेह निभै नदनन्दन सों नर
देह धरे को यहै फल भाई ॥४॥
(धुरवान की धावन सावन में)
सिर चोटी गुधावतीं फूलन सों
मेहदी रचि हाथन पावन में।
परताप त्यों चूनरी सूही सजी।
मन मोहती हावन भावन में।
निस द्योस बितावती पीतम के संग
झूलन में औ झुलावन में।
उनहीं को सुहावन लागत है
धुरवान की धावन सावन में ॥५॥

शकुन्तला।

पण्डित, प्रतापनारायण ने शकुन्तला का जो अनुवाद हिन्दी में किया है वह अनुवाद नहीं कहा जा सकता, हा स्वतन्त्र या स्वच्छन्द अनुवाद कहा जा सकता है । मूल के