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यदिही पर यहि पहिधापति है

कयौं समाखू जो फांकन ।

पार पाकि गे रीरी मुकि मै

मूंडी सासुर हालम खाग।

हाथ घाव कुछ रहे न आपनि

केहिके धागे सुख स्वाधन ॥ ३॥ ।

यही लगुठिया के बूते अब

जस तस डोलित डालित है।

जेरिका ले के सब कामेन मा

सदा खखारत फिरत रहन ।

जियत रह महराज सदा जो

हम ऐस्यन का पालति है।

माहीं तो अय को धौ पूछ

केहि के कौने काम के हन। ४॥

इस कविता में वुढापे का बहुत ही अच्छा फोटो है। कविता खूष सरस है। पर हमें डर है कि जो इस पोली को अच्छी तरह नहीं जानते थे इसका पूरा मजा न पावेंगे। जिम लोगों का यह खयाल है कि किसी विशेष प्रकार की भाषा या बोली में ही अच्छी और सरस कविता हो सकती है, वे ऐसे कि महा गधारी योली में भी रसवती कविता हो सकती है। पर, हां, फवि प्रतिभावान होना चाहिये । प्रतापनारायण ने माहा तक में कविता की है और वह मी सरस और हदय. हारिणी है। कानपुर के दंगल पर उन्होंने एक पुस्तक ही लिख डाली है। इस पुस्तक में आदि से अन्त तफ थाल्दा ही है। इसके सिवा, कानपुर पर भी, थाल्हा छन्द में आपने